मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

मानो किताब एक घर हो


कई बार सोचा 

एक किताब लिखी जाए ।

लेखा-जोखा ..

यही सुख-दुख का ।

सुख कम, दुख ज़्यादा ।


ऐसा क्यों ? कारण सुनो,

दुख इतना हावी हो जाता, 

सुख धूमिल हो 

आँसुओं में बह जाता ।


अच्छा फिर ,

सुख के बारे में 

पहले लिख देखते हैं ।


मानो किताब एक घर हो ।

खुला, हवादार ।

बरामदे और खिड़कियाँ ..

बङी-बङी आँखों जैसी, 

बांध टकटकी बनती साक्षी,

जो कुछ घटता भीतर-बाहर 

सब कुछ दर्ज करती जातीं, 

बिना लाग-लपेट सहज..

खिङकी के पल्ले ,

काॅपी के पन्नों जैसे

कभी सुना है उन्हें बोलते ?

शब्द रचते हैं वे ।


एक कमरे का दरवाज़ा

दूसरे कमरे में खुलने की

संभावना लिए हुए,

एक दूसरे की फ़िक्र करते

उनके भी विचारों के लिए

जगह बनाते हुए 

सजग रहते,

हवा से कभी खुलते 

कभी बंद हो जाते,

संवाद करते खिङकियों से ।


एक आंगन, खाट, चटाई

देर रात बतियाने के लिए ।

खुली छत .. गर्मियों में 

लेटे-लेटे तारे गिनने के लिए ।

अपनों से नाता जोङते,

कुम्हलाए ह्रदय को सींचने वाले 

क्षण अविस्मरणीय

उम्र भर जो सुख दें, 

जब भी हम याद करें ।


मानो किताब एक घर हो ।

जिसमें रहने वालों के मन हों

खुली किताब के पन्ने, 

जो सुखद अनुभूतियों के 

विवरण लिखते-लिखते 

ख़त्म हो जाएं ,

किताब पूरी हो जाए ।


और बस इतना ही ।

दुख के अध्याय फिर कभी ..

अथवा कभी नहीं ।

आखिर सुख की बेल और 

जीवन का मेल है, 

दुख के काँटे कौन सहेजे ?


मानो किताब एक घर हो 

और उसके पन्ने घर की दीवारें 

जिन पर दर्ज हों ऐसी बातें 

जिनकी उंगली पकङ कर

हँसते-बोलते कट जाएं 

जीवन की घुमावदार राहें ।