सोमवार, 23 नवंबर 2009

कील

काश...
कि

जीवन
की विसंगतियां
पेंसिल से लिखी होतीं..
बर्दाश्त
से ज़्यादा
दुखने
पर
रबर
से मिटा दी जातीं

जब
कि ये सारी बातें
मन
की दीवार पर
सौ
फीसदी
कील
की तरह गड़ जातीं
पर
कम से कम
जब
तक
कील
पर टंगी
मनचाही
तस्वीर
हटाई
जाती ,
तब
तक
इतनी
बेढंगी कील
दिन
-रात सामने
नज़र
तो आती

पर
पेंसिल की नोंक
लिखते
-लिखते
बार
बार
टूट
जो जाती है ,
फिर
नए सिरे से
तराशी
जाती है..
रबर
भी अक्सर
गुम
हो जाती है

तो इतनी मगजमारी
कौन
करे ?
बेहतर
है कि
जो

जिसके
लिए
लिखा
गया है ,
उस
पेचीदा दस्तावेज़ को
वो

पूरा
पढ़े ..
और
फिर लड़े
अपने
लिए
अपने
बूते पर

जिस
लिखे को
मिटाया
नहीं जा सकता
सुधारा
नहीं जा सकता
उसे
बस
जिया
जा सकता है,
कील
पर टंगी
मनचाही
तस्वीर के लिए