शनिवार, 29 दिसंबर 2012

गुनो




दिन आज का 
तुमको
क्या क्या दे गया ..
खोल कर बैठो 
दिन की पोटली को 
और गुनो .



रविवार, 30 सितंबर 2012

उस दिन के क्या कहने


सुबह - सुबह 
कोई कविता मिल जाये,
भली-सी,
खिली-खिली सी,
तो उस दिन के 
क्या कहने !

ठंडी बयार सी,
बारिश की फुहार सी,
भाभी की मनुहार सी,
मुन्ने की हंसी सी,
बेला सी, चमेली सी,
मालती की बेल सी,
हरी-भरी तुलसी सी,
मुंडेर पर ठिठकी धूप सी,
सुलगती अंगीठी सी,
डफली की थाप सी,
बांसुरी की तान सी,
सुबह के राग सी 
कोई कविता मिल जाये,
तो उस दिन के 
क्या कहने !

दिन करवट ले 
उठ बैठे,
कविता की बात 
गहरे तक पैठे  ..
सुस्ती के कान उमेंठे, 
छपाक से पानी में कूदे,
लट्टू की तरह फिरकी ले झूमे,
छज्जे से छनती धूप को बटोरे,
बुरे वक़्त को आड़े हाथों ले,
पहरों के बिखरे तिनके समेटे,
हर घड़ी को मोतियों में तोले,
चुन-चुन कर उमंगें साथ ले ले,
और चल दे,
कविता की ओट में 
जीने के लिए .

सवेरे-सवेरे 
कोई कविता मिल जाये,
तो उस दिन के 
क्या कहने ! 


मंगलवार, 4 सितंबर 2012

कड़े दिनों के दिवास्वप्न



कड़े दिन .. 
कट जाते हैं 
दिवास्वप्न के सहारे।
ये जो दिवास्वप्न हैं,
अभिलाषाओं और आशाओं का 
गणित हैं।

और ये मन क्या 
किसी मुनीमजी से कम है ?
हिसाब बैठता है 
संभावनाओं का।
सुख जोड़ता है।
दुःख घटाता है।
इच्छाओं का गुना-भाग कर 
भावनाओं का सामंजस्य बिठाता है।

ये जो दिवास्वप्न हैं ,
जीवन से लगी आस का 
चलचित्र हैं।
छोटी-बड़ी उम्मीदों का 
यायावरी क्रम हैं।

ये जो दिवास्वप्न हैं ,
ऊन के फंदे हैं 
जो माँ स्वेटर बुनते बखत 
सलाई पर डालती है।
रेशम के धागे हैं 
जिनसे बिटिया 
ओढ़नी पर 
बूटियाँ काढती है।
कल्पना का रथ हैं 
जिस पर सवार 
मेरे बेटे के भविष्य का 
चिंतन है।

उम्मीद का परचम हैं 
ये दिवास्वप्न।
इनके सहारे 
कट जाते हैं 
कड़े दिन।  



रविवार, 2 सितंबर 2012

छांव



तुमने
तपती धूप से
बचने के लिए
एक सूती दुपट्टा
दिया है.
भगवान करे
तुम्हें
जीवन में
कभी भी
छांव की
कमी ना हो.

 

अशिक्षा



दरवाज़े की घंटी बजी ..
झाँक कर देखा 
वो खड़ी थी।
मुश्किल घड़ी थी।

कुछ देर पहले ही 
खबर सुनी थी,
उसकी बेटी ..
डेढ़ साल की बेटी 
मर गयी थी।

दरवाज़ा खोलते ही 
बिलख - बिलख कर 
रो पड़ी थी ..
भाभी s s s  मेरा लड़की चला गया !
कंधे पर हाथ रख कर,
भीतर बुला कर 
कुछ कहना चाहा..
पर कुछ भी कहना न आया।

कलेजे के दर्द से 
रह-रह कर पिराती,
वो धम्म से बैठ गयी 
ज़मीन पर
तिपाई की टेक लगा कर।

रह-रह कर 
रुलाई फूटती रही 
और वो कहती रही 
बेटी के चले जाने की कहानी ..
भाभी s s पता नहीं 
उसको क्या हो गया !
पहले सर्दी हुआ,
बुखार हुआ,
डाक्टर से दवा लिया,
फिर ठीक हो गया।
उसका बाद में 
जुलाब होने लगा।
रुकता ही नहीं था।
फिर से डाक्टर को दिखाया,
दवाई दिया।
ग्लूकोस का पानी दिया।
फिर जुलाब भी बंद हो गया।
भाभी s s  उसने खाना बंद किया।
पानी भी नहीं पीती थी।
फिर भी पानी पिलाया ..पिलाया।
पर दो दिन उसने कुछ नहीं खाया।
दो दिन से कुछ नहीं पिया।
एकदम कमजोर हो गई थी।
अस्पताल ले के गया।
उधर वो लोग बोला -
जग्गा नहीं है,
बड़ा अस्पताल में 
ले के जाने का।

पैसा तुम लोग के पास नहीं 
तो उधर ही जाने का .
अरे s s मैं कितना पैसा जमा किया,
सब घर में खर्चा किया।
सामान लिया, सब किया 
मैंने अक्केले किया।
पर मेरा लड़की का 
बेमारी इतना होने के बाद 
सब पैसा ख़तम हो गया !

लम्बा लेकर गया .. दूर  में।
वहां भर्ती किया।
मेरा लड़की को कितना सुई दिया।
इधर सुई दिया ..
इधर सुई दिया ..
कितना इंजेक्सन लगाया !
बाद में नस नहीं मिलता था 
तो सर में बड़ा इंजेक्सन दिया ..
मेरा बेटी का जान तभी गया।
मेरा बेटी चला गया।

बहुत अच्छा था मेरा बेटी।
कभी तंग नहीं किया .
हरदम हंसती थी।
मेरे से खूब बात करती थी।
मेरे से ही उसका जास्ती था।
बाप से नहीं था।
बाप शराब पी के घर कूं आता था।
मेरा बेटी बेमार थी,
तब भी मारता था,
जबरदस्ती मुंह में खाना देता था।

तेरी बेटी को लेकिन हुआ क्या था ?
डॉक्टर क्या बोला ?

कुछ बोला नहीं डाक्टर।
इतना बड़ा फाइल था ...
मैं उधर ही छोड़ कर आई।
मेरे को नहीं पता उसको क्या हुआ,
भाभी मेरा लड़की चला गया।

जी ? कुछ कहा आपने ?
हाँ। वाक़या सुना हुआ लगता है ?
क्यों नहीं लगेगा ?
न जाने कितने घरों में 
ये हादसा होता है ..
बार-बार होता है।
पता भी नहीं 
बच्चे को हुआ क्या था,
डॉक्टर ने भी नहीं बताया।
अस्पताल से डॉक्टर के बीच भागते-भागते 
देखते देखते बच्चा इस दुनिया में नहीं रहा।
और माँ - बाप को कुछ नहीं पता।
जैसे मलेरिया का ताप चढ़ता है,
बच्चे की माँ हिलक-हिलक कर 
रह-रह कर 
चिल्ला कर रोती है,
आंसू पोंछती है 
और सोचती है 
अब और बच्चा नहीं करेगा।
मेरा तीन बच्चा बेमारी में गया।
मेरा आदमी को तीन लड़का चाहिए।
पर अभी लड़का भी नहीं।
लड़की भी नहीं।
मेरे को नहीं चाहिए।

वो घरों में काम कर-कर के 
घर चलाती है।
शराबी बाप से बच्चों को बचाती है।
बच्चा खोने की पीड़ा पचाती है।
और फिर तैयार हो जाती है।
आने वाले दिन का सामना करने के लिए।
दिल दहला देने वाले दुःख से लड़ने के लिए।

काश कि भाग्य थोडा भी उदार होता ..
और यदि साहस को शिक्षा का आधार होता ..
   


शनिवार, 1 सितंबर 2012

खुश रहने के लिए



मुझे 
खुश रहने के लिए
कोई ज़्यादा 
जुगाड़ की ..
कीनखाब 
साज़ो-सामान की
ज़रुरत नहीं .

मुट्ठी भर सपने,
आसपास हों अपने,
बड़ों का आशीर्वाद,
बच्चों की शरारत,
तिल भर भरोसा,
रत्ती भर जिज्ञासा,
प्रेम की घुट्टी,
हिम्मत की बूटी,
दाल-भात या खिचड़ी ,
तवे पर फूली रोटी,
रेडियो पर बजते गाने,
श्रीमतीजी के उलाहने,
दोपहर की झपकी,
सुबह शाम की घुमक्कड़ी ..

कुल मिला कर 
ज़्यादा बखेड़ा नहीं।
यही s s  रोज़ का दाना-पानी 
और छटांक भर 
जीने की मस्ती,
बस काफ़ी हैं मेरे 
खुश रहने के लिए। 

   
 

शनिवार, 21 जुलाई 2012

अब चिट्ठियां नहीं आती




अब चिट्ठियां नहीं आती.

बात जो कहते नहीं बनती,
रह जाती है अनकही 
बिना चिट्ठी..
चिट्ठियां अब नहीं आती।

पुरानी कॉपियों के पन्ने फाड़ कर,
बाबूजी की बढ़िया कलम से,
दोपहर में बैठक के 
कोने में 
बैठ कर,
कुशल - क्षेम पूछ कर,
सजा-सजा कर,
सोच-सोच कर 
जो लिखी जाती थी,
वो चिट्ठियां अब नहीं आती।

डाकखाने जा कर,
चुन-चुन कर
डाक टिकट खरीद कर 
अंतर्देशीय और लिफ़ाफ़े,
पोस्टकार्ड जमा कर के 
रखे जाते थे
चिट्ठियों वाली दराज में .
जब जितनी लम्बी 
लिखनी हो चिट्ठी 
उसी हिसाब से 
अंतर्देशीय और लिफ़ाफ़े 
या पोस्टकार्ड काम में 
लिए जाते थे ।
इतना समझ-बूझ के 
जो लिखी जाती थी 
वो चिट्ठियां अब नहीं आती .

रोज़ाना डाकिये से 
पूछताछ कर के 
खबर ली जाती थी 
आने वाली डाक की .
घर लौटने पर 
दरवाज़ा खोलते ही 
दरवाज़े की संध से सरकायी गई 
पाई जाती थी चिट्ठी 
ज़मीन पर .
पते की लिखावट से 
जो पहचानी जाती थी चिट्ठी ,
बहुत संभल के जो खोली 
जाती थी चिट्ठी ,
और कई कई बार 
जो पढ़ी जाती थी चिट्ठियां,
वो चिट्ठियां अब नहीं आती .


 


अनायास ही



ट्रैफिक के 
बेसुरे और बेशऊर 
शोर के बीच में 
जब अचानक
कोयल की कूक 
सुनाई देती है,
सारा शोर 
सरक कर
जैसे नेपथ्य में 
चला जाता है,
और सोई हुई 
चेतना जैसे 
जाग जाती है ..

अनायास ही।


   

रविवार, 15 जुलाई 2012

कालीदह लीला


कन्हैया की
कालीदह लीला,
जब जब देखी
अंतर में मुखर हुई
यही प्रार्थना ..
हे कृष्ण कन्हैया !
जब-जब मेरे मन में
अनुचित भावों का
नाग कालिया,
फन उठा के,
मेरे विवेक को ललकारे,
तुम इसी तरह आ जाना
दर्प सर्प को वश में करना ।
और नाग नथैया
ऐसा नृत्य करना ..
अंतर झकझोर देना,
ऐसी बांसुरी बजाना  ..
बिखरे सुर जोड़ देना,
सम पर लाकर भले छोड़ देना .

दमन हो अहंकार के विष का,  
ऐसा आत्मबल और भक्ति देना ।


....................................................

लीला चित्रण आभार सहित - श्री अनमोल माथुर
..…….......…..................................

शनिवार, 30 जून 2012

सारथी था बचपन



रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर चादर बिछा कर 
बैठा हुआ था एक परिवार 
अपनी ट्रेन का इंतज़ार करता हुआ।

दो बच्चे
जो शायद भाई थे,
खेल रहे थे।
बाकी सब
सुस्ता रहे थे।
बड़े धैर्य  के साथ 
भीषण गर्मी से 
कर रहे थे 
दो - दो हाथ।

दोनों भाई ,
एक छोटा ..
एक कुछ बड़ा,
मगन थे 
अपने खेल में।
बच्चों के पास था 
एक खिलौना 
और प्लेटफ़ॉर्म का 
एक कोना।

टूटा था -
खिलौना।
प्लास्टिक की,
पीले रंग की,
एक सायकिल थी।
सायकिल भी 
खूब थी यार !
हैंडल,सीट और सवार 
तीनों ही नहीं थे !
पर पहिये थे !

पर पहिये थे.
पहियों के बल पर 
खूब दौड़ रही थी सायकिल 
बच्चों को बहला रही थी सायकिल।
उस टूटी सायकिल से ही 
बड़े खुश थे बच्चे।
उनकी बला से !
हैंडल,सीट और सवार 
नहीं थे !
पहिये तो थे !

पहिये तो थे !
जो दौड़ रहे थे सरपट !

रथचक्र बने थे पहिये 
और सारथी था बचपन। 

रविवार, 6 मई 2012

अकेले ही



सबके रहते हुए भी ,
कुछ युद्ध ऐसे होते हैं 
जो अकेले 
लड़ने पड़ते हैं .

अपनी लक्ष्मण रेखा 
पार करने का 
साहस 
स्वयं करना पड़ता है .

अपनी सीमाओं को 
अपने ही असीमित बल से 
असीम संभावनाओं में 
स्वयं बदलना पड़ता है।

भवितव्य का छल 
खुद ही नियति के 
धक्के खाकर,
अपनी ही हिम्मत के 
बूते पर,
अकेले झेलना पड़ता है,
अकेले ही संभालना पड़ता है ।

एक यात्रा 
अपने ही भीतर 
निरंतर 
एकाकी तय करनी होती है .

अपने ही भीतर 
एक गुफा है 
जिसका सन्नाटा भेद कर 
खुद ही कोई 
सुर ढूँढना पड़ता है।

अपने ही भीतर 
एक टापू है 
जिस पर 
अकेले  खड़े 
हम हैं ;
इस अकेलेपन से 
अकेले 
सामना करना पड़ता है,
नाव खेकर अपनी 
आप ही 
अपना तट खोजना पड़ता है .

अपने ही भीतर 
एक आवाज़ है 
जो सिर्फ हमें सुनाई देती है ,
हमें दुहाई देती है,
वास्ता देती है 
हर अव्यक्त भाव का ,
उपेक्षित बात का .

सबके बीच होकर भी 
अकेले ही 
अपनी कथा की परिणति 
आप ही चुननी होती है .

  

शनिवार, 28 अप्रैल 2012

चिट्ठी



चिट्ठी में चेहरा दिखता है,
मन का हर कोना दिखता है.

आड़ा-तिरछा पता लिखा है,
जल्दी में भेजा लगता है.

स्याही में घुल-मिल गया है,
आंसू जो टपका लगता है.

बड़े जतन से लिखा गया है,
हर अक्षर मोती जैसा है.

मन में तो बातों के पुराण हैं,
लिख कर केवल दोहा भेजा है.

कहने को निरा लिफ़ाफ़ा है,
पर मन का मीत मुझे लगता है.

जो कहते नहीं बनता है,
चिट्ठी में लिखा जाता है.

चिट्ठी में चेहरा दिखता है,
मन का हर कोना दिखता है.


शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

गहरा नीला


घास पर लेट कर 
गुनगुनी धूप में 
आकाश को देखना..
टकटकी लगा कर..
और बताना, 
कितना नीला
और गहरा 
दिखाई देता है..
आसमाँ.

 

रविवार, 22 अप्रैल 2012

कहने को बहुत कुछ पास है मेरे



ऐसा नहीं है कि
कुछ कहने को
मेरे पास नहीं ..
या शब्द
मेरे पास नहीं..
तब भी थे,
अब भी हैं कई
बातें,
जो कहने लायक हैं, बल्कि
दिलचस्प कथानक हैं..और
जायज़ हैं.

पर.. बात अब
खत्म हो जाती है
कहने से पहले,
चुप-सी लग जाती है, कोई
लक्ष्मण रेखा खिंची हो जैसे.
एक सन्नाटा भीतर
पसर गया हो जैसे.

कोई तो आकर झिंझोङे,
मन की साँकल खोले,
बंद खिङकी-दरवाज़े खोले,
कोई तो कुछ ऐसा बोले
जो बोलने का मन करे..

बहती नदी हो जैसे,
मंदिर की घंटियाँ हो जैसे,
बाँसुरी की तान हो जैसे,
बच्चों की मीठी बोली हो जैसे..
बेहिचक बेफ़िक्र
निश्छल निश्चिन्त निर्द्वंद
संवाद हो.

कहने को बहुत कुछ
पास है मेरे.



शनिवार, 14 अप्रैल 2012

लतीफ़ा


समझ में आया तो
दिल खोल कर हँसा.
आखिर लतीफ़ा क्या था
अपना ही किस्सा था
जीने का हिस्सा था ..
समझ लीजिये !

वाकया समझ कर सुन लो,
लतीफ़ा समझ कर हँस लो..
तो जीना आसान हो जाये,
खुश रहने का सबब बन जाये !




शनिवार, 7 अप्रैल 2012

खोकर पाना


जिस दिन मेरा प्यार
अपनी पहचान खो बैठा,

हारसिंगार के फूलों-सा
झर गया ..
मुट्ठी से रेत जैसा
फिसल गया ..
पारे की तरह
बिखर गया ..

उस दिन मैंने,
खोकर पाना सीखा.
खुश्बू की तरह
हवाओं में घुलमिल जाना,
फूलों में बस जाना सीखा.

अपना होकर,
सबको अपनाना सीखा.      


बुधवार, 4 अप्रैल 2012

हद करती हैं लङकियां




जाने क्या-क्या सवाल पूछती हैं लङकियां,
चुप रह के भी बेबाक़ बोलती हैं लङकियां.

बङी शिद्दत से मुहब्ब्त करती हैं लङकियां,
बात-बात पर देखो झगङती हैं लङकियां.

नज़ाकत की मारी ये शोख बिजलियां,
हालात को टक्कर देती हैं लङकियां.

बङे ही नाज़ों से पाली ये हमारी बेटियाँ,
कुनबा सारा का सारा संभालती हैं लङकियां.

गलतियां करने का रखती हैं हौसला,
शर्तों पे अपनी जीने लगी हैं लङकियां.

मर्दों से बराबरी की दुहाई नहीं देतीं,
किस्मत से भी बेखौफ़ उलझने लगी हैं लङकियां.

उम्मीद के सहारे नहीं काटती सदियाँ,
फ़ैसले खुद अपने करने लगी हैं लङकियां.

हँसती हैं सिसकती हैं धधकती हैं लङकियां,
कमर कस के हर घङी को जीती हैं लङकियां.

हद करती हैं लङकियां  !



शुक्रवार, 2 मार्च 2012






अब हमको किसी पर भी भरोसा नहीं रहा,
जिस पर किया यकीं वही छल के चल दिया.    

            
छुप-छुप के रहता हूं मैं अब अपने ही घर में,
जिसको पता दिया वही घर लूट ले गया.

अब किससे शिकायत करें और काहे का शिकवा,
कह-सुन के मना लें अब वो रिश्ता नहीं रहा.

मिलते हैं हज़ारों दफ़ा पर उनको क्या पता,
बिन बोले समझ लें वो अपनापन नहीं रहा.




रविवार, 19 फ़रवरी 2012

अलख

 

जब चाँद गगन में खिला,
सूरज था घोङे बेच कर सोया.
दिन भर का थका-हारा,
रात के बिछौने पर पसरा.

चाँदनी चुपके से आई,
धरती को ओढनी ओढाई.
नभ के तारे बटोर लाई,
और धीमे-धीमे लोरी सुनाई.

दिन बीते अमावस आई,
काजल से काली रजनी लाई.
कुछ ना देता था दिखाई,
तब तारों ने इक बात सुझाई.
क्यों ना अपनी टोली में,
दिये भी शामिल कर लें भाई ?
सभी के मन को बात ये भाई,
टिमटिमाते दियों की सभा बुलाई.

दिये आखिर मिट्टी के होते हैं,
सो बङे ही सीधे-सादे होते हैं.
झट से मान गये,
विपदा टाल गये.

दिये आखिर मिट्टी के होते हैं,
सो बङे ही मेहनती होते हैं.
तेल-बाती जुटा लाये,
झटपट झिलमिल जलने लगे.

सूरज ने चँदा ने सुना,
दोनों ने खुश होकर कहा,
समय पर जो काम आया,
वही मीत सबसे भला.

चँदा सूरज तारे दिये,
अब दोस्त कहलायेंगे.
सब साथी मिलजुल के,
जग का अँधेरा मिटायेंगे.

चँदा सूरज और तारे जब थक जायेंगे,
छोटे-छोटे मिट्टी के दिये बीङा उठायेंगे.
जब-जब अमावस आयेगी,
जगत की दृष्टि हर ले जायेगी,
दिये की अडिग लौ
अलख जगायेगी.

जिस दिन हज़ारों दिये जगमगायेंगे,
हम सब मिल कर दीपावली मनायेंगे. 





सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

बहता चल



कल कल बहता नदी का जल,
सजग हमें करता प्रतिपल.

जीवन का छंद है बङा सरल,
बस सरल भाव से गाता चल.

लहरों का भावावेग तरल,
समझें मांझी के नयन सजल.






रविवार, 22 जनवरी 2012

करारनामा




      करारनामा
१. जब से ...

तुम्हारे नाम लिखी चिट्ठी
जब से डाक में
लौट आई है,
तब से मैंने तुम्हें
चिट्ठी लिखना
छोड़ दिया है.

अब मैंने
अपने नाम आई
हर चिट्ठी को
सहेजना,
बार-बार पढना
शुरू कर दिया है.


    करारनामा

२. अब ..

जब से तुमने
मेरे प्यार का इज़हार,
इश्तहार से भी बेकार
करार दिया है ;
तब से मैंने
तकदीर से तकरार
करना छोड़ दिया है.
पर अब.. मैं प्यार
देने वालों को
बेबस लाचार,
चेष्टा अनाधिकार
करने वाला..
नहीं समझता.
अब मैं
ज़रा-सा भी
प्यार-दुलार
मिले तो
बेझिझक अपनाता हूँ.
उत्सव मनाता हूँ.
जिसका स्नेह मिले,
उसका आभार
मानता हूँ.
जो आत्मीयता से
अपना कहे,
उसे हृदय से लगाता हूँ.

    करारनामा
३. करार

जानते हो क्यों ?
क्योंकि बहुत कुछ खो कर
मैंने पाना सीखा है.
अवहेलना सह कर
भावनाओं का
आदर करना सीखा है.
कोई समझ क्यों नहीं पाता
इस उलझन को सुलझा कर
अव्यक्त को बूझ लेना सीखा है.

जो मुझे नहीं मिला
मैंने देना सीखा है.






शनिवार, 21 जनवरी 2012

अपने दुख से बङा




तुम्हें लगता है तुम्हारा दुख सबसे बङा है.
मुझे भी लगता है कि मेरा दुख सबसे बङा है.

क्यों ना लगे ?

आखिर जिस पर बीतती है,
वो ही तो जानता है !

ठीक है.
तर्क बेहतरीन है.

लेकिन फिर ये बताओ...

आदमी बङा है ?
या उसका दुख बङा है ?

आदमी बङा है ?
या चुप करा देने वाला
तर्क बङा है ?

लगता तो ऐसा है कि
जब दुख आदमी का
उससे भी बङा हो जाता है,
तब अपने ही दुख के मुकाबले
खुद आदमी छोटा हो जाता है;

जैसे घने कोहरे में
रास्ता
छुप जाता है,
खो जाता है.
भूल जाता है आदमी,
कि कभी ना कभी
करवट बदलेगी ज़िंदगी.
धूप निकलेगी,
दुख के कोहरे को
समेट लेगी.

हालात की ज़मीन पर
घुटने जो टेक दे,
वो दुख होता है.

दुख में दूसरे का
सहारा बन कर
सीधा सचेत खङा रहे,
वो आदमी होता है.

तुम्हारा हो,
या मेरा हो,
दुख तो दुख होता है.

कितना भी बङा हो
दुख तेरा या मेरा,
अपने दुख से बङा
खुद आदमी होता है.





रविवार, 15 जनवरी 2012

बस इतना ज़रूरी है



ये ज़रूरी नहीं कि जिसे आप चाहें
वो भी आपको उतना ही चाहे.

चाहने के मायने अलहदा हो सकते हैं.
चाहने के कायदे जुदा हो सकते हैं.
चाहने के दायरे समझ से परे हो सकते हैं.
चाहने के अनुपात परिस्थिति-जन्य हो सकते हैं.

क्या कीजियेगा ?
क्या कहियेगा ?
क्या करियेगा ?

कुछ.. नहीं कर सकते.

बस यूँ समझ लीजिए..

इतना ही ज़रूरी है कि जिसे आप चाहते हैं,
उसे यूँ ही चाहते रहिये.

इतना ही ज़रूरी है कि जो जान से भी प्यारा है,
उसे जी-जान से बस प्यार करते रहिये.

प्यार का पौधा जो रोपा है ज़हन में,
शिद्दत से..मुहब्बत से..उसे सींचते रहिये..

बस.. इतना ज़रूरी है.