रविवार, 22 जनवरी 2012

करारनामा




      करारनामा
१. जब से ...

तुम्हारे नाम लिखी चिट्ठी
जब से डाक में
लौट आई है,
तब से मैंने तुम्हें
चिट्ठी लिखना
छोड़ दिया है.

अब मैंने
अपने नाम आई
हर चिट्ठी को
सहेजना,
बार-बार पढना
शुरू कर दिया है.


    करारनामा

२. अब ..

जब से तुमने
मेरे प्यार का इज़हार,
इश्तहार से भी बेकार
करार दिया है ;
तब से मैंने
तकदीर से तकरार
करना छोड़ दिया है.
पर अब.. मैं प्यार
देने वालों को
बेबस लाचार,
चेष्टा अनाधिकार
करने वाला..
नहीं समझता.
अब मैं
ज़रा-सा भी
प्यार-दुलार
मिले तो
बेझिझक अपनाता हूँ.
उत्सव मनाता हूँ.
जिसका स्नेह मिले,
उसका आभार
मानता हूँ.
जो आत्मीयता से
अपना कहे,
उसे हृदय से लगाता हूँ.

    करारनामा
३. करार

जानते हो क्यों ?
क्योंकि बहुत कुछ खो कर
मैंने पाना सीखा है.
अवहेलना सह कर
भावनाओं का
आदर करना सीखा है.
कोई समझ क्यों नहीं पाता
इस उलझन को सुलझा कर
अव्यक्त को बूझ लेना सीखा है.

जो मुझे नहीं मिला
मैंने देना सीखा है.






शनिवार, 21 जनवरी 2012

अपने दुख से बङा




तुम्हें लगता है तुम्हारा दुख सबसे बङा है.
मुझे भी लगता है कि मेरा दुख सबसे बङा है.

क्यों ना लगे ?

आखिर जिस पर बीतती है,
वो ही तो जानता है !

ठीक है.
तर्क बेहतरीन है.

लेकिन फिर ये बताओ...

आदमी बङा है ?
या उसका दुख बङा है ?

आदमी बङा है ?
या चुप करा देने वाला
तर्क बङा है ?

लगता तो ऐसा है कि
जब दुख आदमी का
उससे भी बङा हो जाता है,
तब अपने ही दुख के मुकाबले
खुद आदमी छोटा हो जाता है;

जैसे घने कोहरे में
रास्ता
छुप जाता है,
खो जाता है.
भूल जाता है आदमी,
कि कभी ना कभी
करवट बदलेगी ज़िंदगी.
धूप निकलेगी,
दुख के कोहरे को
समेट लेगी.

हालात की ज़मीन पर
घुटने जो टेक दे,
वो दुख होता है.

दुख में दूसरे का
सहारा बन कर
सीधा सचेत खङा रहे,
वो आदमी होता है.

तुम्हारा हो,
या मेरा हो,
दुख तो दुख होता है.

कितना भी बङा हो
दुख तेरा या मेरा,
अपने दुख से बङा
खुद आदमी होता है.





रविवार, 15 जनवरी 2012

बस इतना ज़रूरी है



ये ज़रूरी नहीं कि जिसे आप चाहें
वो भी आपको उतना ही चाहे.

चाहने के मायने अलहदा हो सकते हैं.
चाहने के कायदे जुदा हो सकते हैं.
चाहने के दायरे समझ से परे हो सकते हैं.
चाहने के अनुपात परिस्थिति-जन्य हो सकते हैं.

क्या कीजियेगा ?
क्या कहियेगा ?
क्या करियेगा ?

कुछ.. नहीं कर सकते.

बस यूँ समझ लीजिए..

इतना ही ज़रूरी है कि जिसे आप चाहते हैं,
उसे यूँ ही चाहते रहिये.

इतना ही ज़रूरी है कि जो जान से भी प्यारा है,
उसे जी-जान से बस प्यार करते रहिये.

प्यार का पौधा जो रोपा है ज़हन में,
शिद्दत से..मुहब्बत से..उसे सींचते रहिये..

बस.. इतना ज़रूरी है.