शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

महक




किसी भी 
गाँव, गली, कूचे में 
अचानक, 
बचपन की महक 
चुपके से आ कर
लिपट जाती है ।
वैसे, 
ठीक-ठाक कहना 
मुश्किल है,
क्या अभिप्राय है 
'महक' से ।

शायद ये 
बारिश की पहली 
बौछार के बाद की 
मिट्टी की 
सौंधी - सौंधी 
महक है ।
या चूल्हे पर सिकती, 
अम्मा के हाथ की 
करारी रोटी की, 
भूख जगाती 
महक है ।
या फिर 
मंदिर में मिले 
प्रसाद के दोने की 
मीठी महक है ।
कौन जाने 
शायद ये 
दोपहर भर खेलने के 
बाद पसीने से भीगी 
कमीज़ की 
नमकीन सी 
महक है ।

कुछ चीज़ें 
बिना नाम के भी 
पहचानी जाती हैं ।
कभी - कभी 
यूँ ही 
दस्तक दे जाती हैं ।




          

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