रविवार, 23 नवंबर 2014

सुखांत कथा



आजकल हमें 
सुखांत कथा ही 
भाती है । 

वजह 
जो भी हो ।
चाहे ये 
कि वास्तविक जीवन में तो  . . 
अपने चाहे से 
कुछ होता नहीं ।
क्या होगा ?
उस पर बस नहीं ।
और असल बात तो 
ये है भई,
सुखद और दुखद का 
होता है अपना - अपना कोटा । 
ज़िन्दगी में ,
सुख के सिलसिले है कभी ,
दुःख भी डट कर बैठे हैं सभी ।
वस्तुस्थिति 
परिस्थिति 
यथार्थ घटनाक्रम से 
जूझते हैं सभी ,
कभी न कभी ।
इसमें क्या नयी बात है ?

बात तो तब है जब 
कथा से जन्मे 
संवेदनशीलता ।
होनहार होकर रहे 
पर आत्मबल ना झुके ।

क्योंकि मित्रवर अब सहन नहीं होते ,
हारे हुए कथानक ।
अंत में सद्भावना प्रबल हो ,
और इस तरह कथा सुखांत हो ।

          

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

उनकी भी आज दिवाली है







जहाँ सितारे ही दीये हैं,
मीलों बर्फीले सन्नाटे हैं.
आतिशबाज़ी गोलीबारी है,
सावधानी ही पूजा है.
उस सुनसान बियाबान में,  
घर से जो मीलों दूर हैं.
जो सीमा की पहरेदारी में,
अलख जगाये बैठे हैं.
                        उनकी भी आज दिवाली है .


जहाँ पानी आंसू की बूँद है.
साफ़ गलियां एक अय्याशी हैं.
जहाँ शोर ही आतिशबाज़ी है,
दो जून रोटी पकवान है.
उस झोंपड़पट्टी की बस्ती में,
हर पल जीने की जंग है.
जिनका कल रात लगी आग में,
जल कर हुआ सब कुछ ख़ाक है.
                           उनकी भी आज दिवाली है.

इन सबके नाम का एक दिया,
अब मन में हमें जलाना है.
उनसे जो बन पड़ा उन्होंने किया,
अब हमें कुछ कर के दिखाना है.

                        उनकी भी आज दिवाली है.
                        उनको भी दीया जलाना है.                




रविवार, 26 अक्तूबर 2014

दीये की लौ





आले में रखा
दीया,
कब तक
और कितनी दूर तक
दूर करता रहेगा
अँधेरा ?



एक दिन तो
मुझे चल देना होगा,
हथेली पर लेकर दीया ..

लौ का काजल
आँखों में आंज कर,
नज़र चमका कर,                   
चीर कर रख देना होगा
अँधेरा .


एक दिन तो              
मुझे अपना मन
साधना होगा,
मानो
दीये की लौ .   






शनिवार, 20 सितंबर 2014

साथ दुआ लेते जाना




अब जा ही रहे हो तो ..
साथ दुआ लेते जाना .

रास्ते आसान होंगे,
ये ज़रूरी तो नहीं .
हालात मेहरबां होंगे,
ये भी ज़रूरी नहीं .
अब चल ही पड़े हो तो ..
हौसला बनाये रखना .

ख़ुशी के मौके होंगे,
पर हरदम तो नहीं .
लोग हमक़दम होंगे,
पर हमेशा तो नहीं .
अब चल ही पड़े हो तो ..
माहौल बनाये रखना .

अब जा ही रहे हो तो ..
उम्मीदों की सौगात लेते जाना .
परिंदों की उड़ान लेते जाना .
ज़िन्दादिली का पैगाम लेते जाना .
यादों का सामान लेते जाना .

अब जा ही रहे हो तो ..
साथ दुआ लेते जाना .   



शनिवार, 13 सितंबर 2014

बच्चों का चेहरा



शर्मिष्ठा शर्मा ..
उम्र पैंतीस के लगभग,
बारह वर्ष नौकरी का अनुभव,
कद-काठी सामान्य .
रोज़ सुबह
जैसे ही स्कूल बस जाये,
हैवरसैक सीने से चिपकाये,
धड़धड़ाती हुई रेल की तरह
लोकल ट्रेन पकड़ने
घर से कूच करती है..    
जैसे मार्चिंग ऑर्डर्स मिले हों .

एक नदी की तेज़ धार,
भीड़ के अपार समुद्र में
समा जाती है .
हाथ-पाँव मारते हुए,
अपनी जगह बनाते हुए,
ख़ुद को साधना पड़ता है
तीर की तरह तन कर ..
पैना बन कर .

यात्रा का पहला चरण तय कर,
आगे बढती है बस पर चढ़ कर .
जद्दोजहद यहाँ भी नहीं कम पर .
  
जिन्हें काम की लत लगी,
उन्हें काम की कमी नहीं.
दिन भर हुआ काम,
फिर हो गई शाम .

शाम को भी वही दस्तूर,
आख़िर बस्ती है बहुत दूर .
पैदल परेड करते हुए,
बस में फांस की तरह फंसे हुए,
ट्रेन में मल्लयुद्ध करते हुए .

युद्धस्तर पर जीते हुए,
कैसे हर दिन फिर दोबारा,
तैनात हो जाती है 
               शर्मिष्ठा शर्मा ?
शाम तक शरीर का 
ईंधन चुकते-चुकते,
क्यूँकर इसके 
           पाँव नहीं थकते ?
घर लौटने तक,
किस खुराक पर
सरपट दौड़ती है
             शर्मिष्ठा शर्मा ?

एक दिन उससे पूछा था,
तो उसने जवाब दिया था ..
सुबह मुझे रहती है जल्दी,
आजीविका कमाने की .

घर लौटते हुए,
मन में प्रबल
एकमात्र इच्छा,
जल्दी से जल्दी
देखना होता है
            बच्चों का चेहरा .
सुननी होती हैं
            उनकी बातें,
जी चुरा लेती हैं
             उनकी शरारतें .

सारी दुश्वारियों से   
भिड़ जाती है   
            शर्मिष्ठा शर्मा ,
क्योंकि उसे 
देखना होता है
            अपने बच्चों का चेहरा .                    





शनिवार, 30 अगस्त 2014

गणपति बप्पा मोरया

हर मुम्बईकर के पिता,
गणपति बप्पा मोरया ।
इनका उत्सव आया,
चतुर्दिक हर्ष छाया !

शिल्पकार की मुखर हो उठी कल्पना,
बप्पा को अनेक रूपों में देखा ।

किसी ने उन्हें मुनीमजी बनाया,
किसी ने स्कूल का यूनिफार्म पहनाया ।
किसी ने हाथों में वाद्य थमाया,
किसी ने पग में नूपुर बाँधा ।

कभी हाथ में पुस्तक,
कभी नृत्य को उत्सुक,
बप्पा ने सबका मन बहलाया,
सिर पर रखा हाथ मस्तक सहलाया ।

बप्पा के चरणों पर शीश नवाऊँ,
बप्पा की गोद में सिर रख सो जाऊं ..
                       तो चैन पाऊं,
                       बप्पा के गुण गाऊं ।

भाव विभोर हो मन कह उठा,
बप्पा हमको आशीष देना ।


रविवार, 24 अगस्त 2014

अनुभव



आज दफ़्तर को जाते हुए,
एक अजब किस्सा हुआ ।

मोटरों की चिल्ल-पों, 
भीड़ भरे रास्तों 
के ठीक बीचों-बीच,
बस स्टॉप के रास्ते पर 
चलते-चलते अचानक देखा  . . 
एक गिलहरी, 
अनायास ही ,
मेरा रास्ता 
पार कर गयी ।
  
कंक्रीट का जंगल 
देखता रह गया ।

कुछ पल के लिए 
वहाँ कोई ना था ,
ना रास्ता ,
ना बाकी दुनिया से वास्ता ।

एक कोमल पल ठहर गया ।
एक सुखद अनुभव हुआ ।
और बाँटने का मन हुआ ।      




शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

स्वतन्त्रता



सच्ची स्वतन्त्रता यही है ।

बच्चों की सेना 
जगह - जगह
चौराहों पर, 
प्लास्टिक के तिरंगे 
बेच रही है । 

इन्ही की 
खुरदुरी 
हथेलियों पर,
देश की 
सम्पन्नता 
टिकी है । 

इन्ही के 
दुबले 
कन्धों पर,
देश की 
प्रतिष्ठा 
टिकी है ।    

इनकी 
जिजीविषा 
महाबली है । 
सच्ची 
स्वतंत्रता 
यही है । 



रविवार, 10 अगस्त 2014

इसी रास्ते पर




जब मन दुखी था . . 
इसी रास्ते पर,
चलते-चलते 
मैंने देखा - 
घूरे का ढेर ,
ऑटो स्टैंड के कोने पर 
बिल्डिंग भदरंग ,
टूटी कम्पाउंड वॉल ,
मारुति मैदान की सूखी घास ,
भाले सी चुभती धूप ,
कार की छत पर 
चिड़िया की बीट ,
बेमानी भीड़। 

जब मन प्रसन्न था  . . 
इसी रास्ते पर 
चलते-चलते 
मैंने देखा -
फूलों से लदा सोनमोहर। 
सोनमोहर के नीचे, 
फूलों की चादर से ढकी 
चाय की टपरी ,
लाइन से खड़ी 
कारों की छत पर 
इन्ही फूलों की मेंहदी। 
वटवृक्ष की घनी छाँव। 
रास्ते के अगले छोर पर 
बहुत पुराना राम मंदिर। 
मंदिर की घंटियों के 
सुरीले स्वर। 
स्कूल से आता बच्चों का शोर। 
चमचमाती दुकानें ,
घरों से झाँकते दिलचस्प  चेहरे, 
कर्मठ इंसानों के आते-जाते रेले, 
नुक्कड़ पर चाट के खोमचे, 
साँझ-सवेरे जैसे लगते हों मेले। 

देखा जाये तो आश्चर्यजनक सत्य यही है ,
वास्तव में, 
दुखी मन से 
प्रसन्न मन का 
पलड़ा भारी है।        
       



शनिवार, 5 जुलाई 2014

फूल बनाम मुन्ना



अपने हाथों से लगाये पौधे पर ,
खिलती हैं कलियाँ जब , 
जी खुश हो जाता है तब !
अपने नन्हे-मुन्ने की 
मासूम दूधिया हँसी 
देख कर भी ,
लगता है यही ।

यही कि देखते-देखते हर कली 
फूल बन कर थामेगी टहनी ।
इसी तरह आँखों के सामने मेरी
नौनिहाल मेरा 
होगा बड़ा ,
थाम कर हाथ मेरा ,
नन्हे-नन्हे कदम रखता 
चलेगा पैयाँ पैयाँ ।

नन्हा मुन्ना मेरा 
एक फूल प्यारा प्यारा ।
हौले-हौले खिला
फूल ही है मुन्ना हमारा ।



परवाह

हँसने का सबब कोई भी नहीं,
फिर भी हम हरदम हँसते हैं ।
दुनिया से हमको गिला नहीं,
हम अपनी फ़िक्र खुद करते हैं ।

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

राम

राम नाम
शीश पर
धारण कर,
ध्यान धर,
सत्कर्म कर ।

रविवार, 6 अप्रैल 2014

आधार



घर में जब बच्चों की नयी 
स्टडी टेबल आई,
तो मन में एक विचार आया 
इस मेज़ को कैसे जाए सजाया ।

एक बेटा है मेरा और एक बेटी, 
दोनों इतने खुश थे  . . पूछो नहीं !

दुकानों के जब दर्जन भर दौरे कर आयी,
तब जा के दोनों के लिए दो मूर्तियां लायी ।
एक थी माँ दुर्गा, एक माँ सरस्वती,
एक - एक मूर्ति दोनों को थमाई ।

बोले बच्चों के पापा  . . 
एक बात समझ नहीं पाया,
तुम बेटे के लिए माँ सरस्वती 
बेटी के लिए माँ दुर्गा क्यों लाई ?

मन में जो बात थी वह कह सुनाई, 
बच्चों के पिता को हौले से समझाई ।

बेटे पर माँ सरस्वती का आशीर्वाद बना रहे,
माँ , बहन, पत्नी , हर स्त्री का आदर करे ,
हर हाल में उसकी सदबुद्धि बनी रहे ।

बेटी को माँ दुर्गा का आशीष मिले,
हर संघर्ष में उसका मस्तक ऊंचा रहे,
किसी भी परिस्थिति में हिम्मत न टूटे ।

जीवन में जब परीक्षा का क्षण आये, 
मेरे बच्चे आत्म-गौरव और गरिमा की 
धारदार कसौटी पर हमेशा खरे उतरें ।
                   

शनिवार, 15 मार्च 2014

शायद अब कल मैं कुछ लिखूँ



आपकी सराहना ने 
अनुभूति के रिक्त कोने 
                        भर दिए ।
शायद अब 
           कल मैं कुछ लिखूँ ।

अपनी कलम के साथ चार कदम चलूँ ।
शब्दों में अपने साफ़ - साफ़ दिखूँ ।
            शायद अब 
                       कल मैं कुछ लिखूँ ।   

ऊन की सलाई पर नए फंदे बुनूँ ।
बगीचे की क्यारी में नन्हा पौधा रोपूं ।
             शायद अब 
                        कल मैं कुछ लिखूँ ।   

खट्टी-मीठी गोलियों का चटपटा स्वाद चखूँ ।
बच्चों संग बच्चा बन नित नए खेल खेलूँ । 
              शायद अब 
                         कल मैं कुछ लिखूँ ।

नदी किनारे बैठ कर बाँसुरी बजाऊँ ।
खाट पर लेटे-लेटे तारों से मंत्रणा करूं ।
              शायद अब 
                         कल मैं कुछ लिखूँ ।     

शायद अब कल मैं कुछ लिखूँ ।