शनिवार, 20 सितंबर 2014

साथ दुआ लेते जाना




अब जा ही रहे हो तो ..
साथ दुआ लेते जाना .

रास्ते आसान होंगे,
ये ज़रूरी तो नहीं .
हालात मेहरबां होंगे,
ये भी ज़रूरी नहीं .
अब चल ही पड़े हो तो ..
हौसला बनाये रखना .

ख़ुशी के मौके होंगे,
पर हरदम तो नहीं .
लोग हमक़दम होंगे,
पर हमेशा तो नहीं .
अब चल ही पड़े हो तो ..
माहौल बनाये रखना .

अब जा ही रहे हो तो ..
उम्मीदों की सौगात लेते जाना .
परिंदों की उड़ान लेते जाना .
ज़िन्दादिली का पैगाम लेते जाना .
यादों का सामान लेते जाना .

अब जा ही रहे हो तो ..
साथ दुआ लेते जाना .   



शनिवार, 13 सितंबर 2014

बच्चों का चेहरा



शर्मिष्ठा शर्मा ..
उम्र पैंतीस के लगभग,
बारह वर्ष नौकरी का अनुभव,
कद-काठी सामान्य .
रोज़ सुबह
जैसे ही स्कूल बस जाये,
हैवरसैक सीने से चिपकाये,
धड़धड़ाती हुई रेल की तरह
लोकल ट्रेन पकड़ने
घर से कूच करती है..    
जैसे मार्चिंग ऑर्डर्स मिले हों .

एक नदी की तेज़ धार,
भीड़ के अपार समुद्र में
समा जाती है .
हाथ-पाँव मारते हुए,
अपनी जगह बनाते हुए,
ख़ुद को साधना पड़ता है
तीर की तरह तन कर ..
पैना बन कर .

यात्रा का पहला चरण तय कर,
आगे बढती है बस पर चढ़ कर .
जद्दोजहद यहाँ भी नहीं कम पर .
  
जिन्हें काम की लत लगी,
उन्हें काम की कमी नहीं.
दिन भर हुआ काम,
फिर हो गई शाम .

शाम को भी वही दस्तूर,
आख़िर बस्ती है बहुत दूर .
पैदल परेड करते हुए,
बस में फांस की तरह फंसे हुए,
ट्रेन में मल्लयुद्ध करते हुए .

युद्धस्तर पर जीते हुए,
कैसे हर दिन फिर दोबारा,
तैनात हो जाती है 
               शर्मिष्ठा शर्मा ?
शाम तक शरीर का 
ईंधन चुकते-चुकते,
क्यूँकर इसके 
           पाँव नहीं थकते ?
घर लौटने तक,
किस खुराक पर
सरपट दौड़ती है
             शर्मिष्ठा शर्मा ?

एक दिन उससे पूछा था,
तो उसने जवाब दिया था ..
सुबह मुझे रहती है जल्दी,
आजीविका कमाने की .

घर लौटते हुए,
मन में प्रबल
एकमात्र इच्छा,
जल्दी से जल्दी
देखना होता है
            बच्चों का चेहरा .
सुननी होती हैं
            उनकी बातें,
जी चुरा लेती हैं
             उनकी शरारतें .

सारी दुश्वारियों से   
भिड़ जाती है   
            शर्मिष्ठा शर्मा ,
क्योंकि उसे 
देखना होता है
            अपने बच्चों का चेहरा .