कविता है,
कर्म की भूमिका ।
पहले कभी थी ,
मन की व्यथा
अथवा जीवन की कथा ।
कभी - कभी कल्पना ,
अनुभव की विवेचना ।
और हमेशा
सरलता की आभा . .
प्रसन्न निश्छल ह्रदय की
मयूरपंखी छटा ।
जाने क्या - क्या
अनुभूति की गठरी में
जाने - अनजाने जुड़ा ,
या घटा . .
जाने
स्वयं ही गया ठगा ।
जो बचा ,
जो सहेजा गया -
छिन - छिन गढ़ा गया . .
वही बनी कविता ।