शनिवार, 21 जुलाई 2012

अब चिट्ठियां नहीं आती




अब चिट्ठियां नहीं आती.

बात जो कहते नहीं बनती,
रह जाती है अनकही 
बिना चिट्ठी..
चिट्ठियां अब नहीं आती।

पुरानी कॉपियों के पन्ने फाड़ कर,
बाबूजी की बढ़िया कलम से,
दोपहर में बैठक के 
कोने में 
बैठ कर,
कुशल - क्षेम पूछ कर,
सजा-सजा कर,
सोच-सोच कर 
जो लिखी जाती थी,
वो चिट्ठियां अब नहीं आती।

डाकखाने जा कर,
चुन-चुन कर
डाक टिकट खरीद कर 
अंतर्देशीय और लिफ़ाफ़े,
पोस्टकार्ड जमा कर के 
रखे जाते थे
चिट्ठियों वाली दराज में .
जब जितनी लम्बी 
लिखनी हो चिट्ठी 
उसी हिसाब से 
अंतर्देशीय और लिफ़ाफ़े 
या पोस्टकार्ड काम में 
लिए जाते थे ।
इतना समझ-बूझ के 
जो लिखी जाती थी 
वो चिट्ठियां अब नहीं आती .

रोज़ाना डाकिये से 
पूछताछ कर के 
खबर ली जाती थी 
आने वाली डाक की .
घर लौटने पर 
दरवाज़ा खोलते ही 
दरवाज़े की संध से सरकायी गई 
पाई जाती थी चिट्ठी 
ज़मीन पर .
पते की लिखावट से 
जो पहचानी जाती थी चिट्ठी ,
बहुत संभल के जो खोली 
जाती थी चिट्ठी ,
और कई कई बार 
जो पढ़ी जाती थी चिट्ठियां,
वो चिट्ठियां अब नहीं आती .


 


अनायास ही



ट्रैफिक के 
बेसुरे और बेशऊर 
शोर के बीच में 
जब अचानक
कोयल की कूक 
सुनाई देती है,
सारा शोर 
सरक कर
जैसे नेपथ्य में 
चला जाता है,
और सोई हुई 
चेतना जैसे 
जाग जाती है ..

अनायास ही।


   

रविवार, 15 जुलाई 2012

कालीदह लीला


कन्हैया की
कालीदह लीला,
जब जब देखी
अंतर में मुखर हुई
यही प्रार्थना ..
हे कृष्ण कन्हैया !
जब-जब मेरे मन में
अनुचित भावों का
नाग कालिया,
फन उठा के,
मेरे विवेक को ललकारे,
तुम इसी तरह आ जाना
दर्प सर्प को वश में करना ।
और नाग नथैया
ऐसा नृत्य करना ..
अंतर झकझोर देना,
ऐसी बांसुरी बजाना  ..
बिखरे सुर जोड़ देना,
सम पर लाकर भले छोड़ देना .

दमन हो अहंकार के विष का,  
ऐसा आत्मबल और भक्ति देना ।


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लीला चित्रण आभार सहित - श्री अनमोल माथुर
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