शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

ऐलाने सहर


स्मृतियाँ बटोर लाई 

दिवाली की सफ़ाई !
घर के जिन कोनों ,
तहखानों को ,
बरस में एक बार 
टटोल कर 
देखा जाता है  . . 
उन कोनों , तहखानों में 
कई खज़ाने 
छुपे होते हैं ।
सामान की परतों में 
यादों के पुलिंदे
दबे होते हैं ।

पुरानी चिट्ठियों में 

उन लोगों के ख़त मिले 
जो अब दुनिया में 
नहीं हैं ।
पर चिट्ठी पढ़ते - पढ़ते 
वो धुंधले चेहरे 
स्पष्ट हो गए ।
जैसे कल और आज के 
बीच की लकीरें 
मिट गई हैं ।
यादें नज़दीक आ के 
माथा सहलाने लगी हैं ।
समय जैसे 
समंदर की लहरों की तरह 
तट पर 
लौट आया है ।

वो भी क्या दिन थे !

बड़े विस्तार से 
ख़त लिखे जाते थे ।
बातों के सिलसिले 
चिट्ठियों में 
बुने जाते थे ।

बहुत से 

ग्रीटिंग कार्ड मिले ।
कुछ लोग साथ रहे ,
कुछ नहीं रहे ।
बचे तो सिर्फ़ उनके 
हस्ताक्षर बचे ।

बड़े संदूक में से 

माँ के हाथ के बुने 
रंग - बिरंगे स्वेटर निकले ।
दो - तीन मफ़लर भी मिले ,
जो पापा पहना करते थे ।
इन स्वेटरों और 
मफ़लरों की तहों में 
यादों की गर्माहट है ।

स्टील की अलमारी के 

ऊपर वाले कोने में ,
एक थैली में 
बहुत सारे सिक्के मिले ।
कभी बचपन में 
दादी ने 
बहुत सारे 
पैसे दिए थे ।
अब जो मिले  . . 
पुराने सिक्के खनके 
तो बिखर गए 
कई सुधियों के तिनके ।

और एक लकड़ी के 

नक्काशी वाले 
डिब्बे में 
कुछ कंचे मिले  . . 
डाक टिकट पुराने  . . 
माचिस के डिब्बे  . . 
रंग - बिरंगी पेंसिलें  . . 
लूडो , साँप - सीढ़ी  . . 
एक लाल रंग की सीटी  . . 
खुशबू वाली रबर  . . 
चन्दन का पेन और पेपर कटर  . . 
बचा के रखी हुई चीज़ें ,
या कहिये 
सँभाल के रखी हुई यादें ।
अब यादें ही तो बची हैं ।
यादें  . . जो जीवन को सींचती हैं ।

दुछत्ती पर रखी एक कंडिया में 

मिले कुछ मिट्टी के दीये 
जो थे हाथों से पेंट किये 
और कुछ लकड़ी के खिलौने ,
जिनसे खेलने वाले 
बच्चे ही नहीं अब घर में ।
अब सोचा है किसी बच्चे 
को दे दिए जाएं ये खिलौने ।
किसी नौनिहाल की मुस्कान 
बन जाएं ये खिलौने ।

स्टोर में रखी छोटी अटैची में 

छह - सात रूमाल मिले कढ़े हुए ।
एक मेजपोश और दो दुपट्टे 
पेंट किये हुए पर अधूरे ।
बरसों पहले जो काम छूट गए थे 
किसी वजह से बीच ही में ,
अब भी वो हो सकते हैं पूरे ।
अधूरे काम और अधूरे सपने 
पूर्ण करने के लिए 
ही शेष जीवन है ।

घर के भूले - बिसरे 

हर कोने में ,
मेज़ की दराज़ों में ,
बरसों पुरानी किताबों में ,
रसोई के आलों में ,
दुछत्ती पर रखे बक्स में ,
बीते समय के 
पदचिन्ह हैं ।
इनसे जुडी यादें 
जीवन के  सफ़रनामे में ,
वो मील के पत्थर हैं 
जो भवितव्य के 
पदचाप की 
आहट पा जाते हैं ।
बरसों तक जिन्हें 
रखा सहेजे ,
स्मृतियों में लिपटी वो चीज़ें  . . 
उस धरोहर पर 
है वक़्त की मुहर ।
वक़्त जो इस ठिठके पहर 
कर रहा है ऐलाने सहर ।