शनिवार, 7 नवंबर 2015

हरियल



शहर के
पथरीले बीहड़ में,
बस अभी अभी,
पंख फैला कर उड़ता
एक तोता देखा !

अनायास ही,
मन मेरा
हरा-भरा हो गया !



बुधवार, 15 जुलाई 2015

सत्य


सब कुछ 
ध्वस्त 
होने के बाद 
जो बचता है,
वही 
शाश्वत सत्य 
होता है ।  

अच्छे और बुरे से परे


अच्छे और बुरे,
इनकी परिभाषा के परे 
सत्य 
मैंने जाना है ।  
अनुभव ही पैमाना है ।
गहरे पानी पैठ कर 
पहचाना है । 
जिस समय 
जो सही लगे,
वही करे,
तो बंदा 
खरा होता है ।
अच्छे बुरे का मापदंड 
ठीक उसी वक़्त 
तय होता है,
जिस वक़्त 
निर्णय लेना होता है ।
आदमी से बड़ा 
वो लम्हा होता है,
जब सच्चाई की 
कसौटी पर 
उसका सारा चिंतन 
दाँव पर लगा होता है ।


रविवार, 5 जुलाई 2015

सोच

सामाजिक दायित्व की
प्रतिबद्धता
है कविता ।

सबसे बड़ी
कविता -
"जहाँ सोच
वहां शौचालय" ।

शनिवार, 20 जून 2015

युद्ध

अपना महाभारत 
स्वयं ही 
लड़ना होता है ।

ख़ुद ही अर्जुन
ख़ुद ही श्रीकृष्ण 
बनना पड़ता है ।


शुक्रवार, 19 जून 2015

प्रसाद दो ना


घर का रास्ता खो गया । 
मुझे याद नहीं 
अपना ही पता । 
काश कोई अपना 
राह चलते मिल जाता,
घर तक पहुँचा आता ।

हे ईश्वर ! परमपिता !
तुम ही ने जब 
इस भूल भुलैया का 
खेल है रचा ,
तो तुम ही क्यों नहीं 
अब बता देते सही पता ?
तुम्हें तो सब कुछ है पता ,
तुम्हारा ही तो है एकमेव आसरा ।

बताओ तो भला 
ऐसा क्यों हुआ ?

जिन्हें तुमने मार्ग बुझाने भेजा 
वो भी क्यों बुझाते हैं पहेली ?
क्यों नहीं करते बात सीधी - सच्ची ?
सहजता की क्यों कोई अब मान्यता नहीं रही ??
क्यों नहीं बोलता कोई 
सहज और सरल प्रेम की बोली ?

क्या मान्यताओं और विषम परिस्थितियों में ही 
उलझा कर, 
लेते रहोगे तुम निरंतर परीक्षा ?
क्या सरल आस्था और समर्पण की 
मिटटी में, 
ना खिल सकेगा 
भक्ति का पौधा ?

यदि हाँ तो अभी ही उत्तर दो ना !
मन की अपार व्यथा दूर करो ना !
मेरी ऊँगली पकड़ कर मुझे घर तक पहुँचा दो ना !



रविवार, 17 मई 2015

करने का क्या ?



क्यों बिरादर ?
क्यों आंसू बहाता है ?
क्यों अकेलेपन से घबराता है ?

तुझे क्या लगा तू ही अकेला है ?
तेरे साथ ही किसी का 
ज्यादा दिन जमता नहीं ?
फिर तो तुझे कुछ पता ही नहीं !

देख, तेरे पास जास्ती पैसा नहीं !
तू जास्ती पढ़ा - लिखा नहीं !
तेरा नौकरी भी चकमक नहीं !
मतलब हर जगह से तेरा पत्ता साफ !
ज्यादा दिन कोई नहीं रहता तेरे साथ !
बस ये ही है न बात ?

अब मुझे देख जरा !
शकल तो अपनी बुरी नहीं !
पर कोई खास भी नहीं !
टॉप की पढ़ाई भी नहीं !
काम भी टिप - टॉप नहीं !
पर अगर बोलो कि कुछ भी नहीं !
तो ऐसा भी ठीक नहीं !

पर कुछ पता भी है कि नहीं !
अपना तो कभी सही नंबर ही 
                                लगता नहीं !
लाइफ में जब भी लगा ! 
रॉन्ग नंबर ही लगा !
पता नहीं क्या गलत हो गया !
तो बोलो नतीजा क्या ?
अपना भी लाइफ अकेलेपन का !

अब उसको देख !
चिकना अपना !
पोस्टर के हीरो माफिक शकल इसका !
फर्राटे से दौड़ता है धंधा इसका !
इसके पीछे दुनिया दीवानी !
पर पता है क्या इसकी परेशानी ?
एक लड़की भी इसको पसंद नहीं आती !
कोई इसको समझ नहीं पाती !
बोलो फिर नतीजा क्या ?
ये भी अकेला का अकेला !

अभी बोल करने का क्या ?
सब कुछ रहेगा - तो भी अकेला ।
नहीं रहेगा - तो भी अकेला ।
बता समझने का क्या ?
लाइफ में लोचा ही लोचा !
अभी बोल करने का क्या ?

देख अपने को एक बात समझा ।   
जो होने को है वो ही होता ।
फकत अपने को क्या लगता  . . 
अपने दिमाग पर ताला नहीं मारने का ।
दिल का रास्ता बंद नहीं करने का ।
समझो कभी कोई आया !
जिससे चांस है अपना जमने का  . . 
तो वो लौट के नहीं जाने का !

अगर कोई तुम्हारे वास्ते आया 
तो पहचान लेने का,
जाने नहीं देने का !

बस रेडी रहने का !
जब अपना टाइम आयेगा,
टाइमिंग सेट हो जायेगा !


      

अश्रु झरते दिन रात



जिस तरह पतझड़ में झरते पात,
नयनों से अश्रु झरते दिन रात ।  

दुविधा की इस घड़ी  में कोई नहीं साथ,
कोई नहीं साथ जो समझे मन की बात ।

मन के सहज भावों ने किया आत्मघात,
अंतर के कोलाहल का निष्ठाओं पर आघात ।    

भव्य प्रस्तर प्रतिमाओं के बीच,
कोमल फूलों की क्या बिसात ।  


मंगलवार, 12 मई 2015

आकस्मिक


ये बात उस परिचित की है
जो कल तक बेगाना था
और आज ज़बरदस्ती
दोस्त बन बैठा है ।
अचानक उस दिन उसने पुकारा
खूबसूरत कह के पुकारा
तो अचरज हुआ
कुछ कहते नहीं बना ।
फिर सोचा चलो
हाज़िरजवाबी का लेकर सहारा
मारा जाये नहले पे दहला
मैंने भी उसे नौजवान सजीला कह दिया ।
अब क्या था
बातों का पिटारा खुल गया ।
जैसे उसने दामन ही पकड़ लिया ।
उसने अपने बारे में बताया
वो भी बताया
जो लोग अक्सर कह पाते हैं
अपने करीबी दोस्त से ।
अब तक समझ नहीं आया
ऐसा उसने क्यों किया ?
एक टूटा हुआ रिश्ता
अंदरूनी ज़ख्म होता है
जो आदमी या तो वैद्य
या अपने अज़ीज़ को दिखाता है ।
मुझे तो न दुःख की दवा पता
न आज से पहले था कोई रिश्ता ।
फिर उसने अपना सवाल पूछा
जैसे उसे पहले से था पता
कि मन के किसी कोने में
जवाब है छुपा ।
ये मनाता हुआ
कि कोई पूछ ले सवाल
टटोले दिल का हाल  ।
वरना क्या ज़रूरी था ?
सवाल का जवाब देना ?
बल्कि तुमने ही किया था
शुक्रिया
पूछने का और सुनने का ।
खुद ही अपना चैन गवां दिया !
माना उसने कंकड़ फेंका
शांत जल को उथल पुथल कर दिया ।
पर तुमसे किसने कहा था
उसी जल में देखो अपना मुखड़ा ?
हर बात जानना चाहता है
हर ज़ख्म कुरेदना चाहता है
दुःख बाँटना चाहता है
कस कर गले लगाना चाहता है
और सब कुछ अभी
अभी कि अभी
जानना चाहता है ।
मेरा ये आकस्मिक दोस्त
आखिर क्या चाहता है ?

रविवार, 10 मई 2015

अभिनंदन

पस्त 
ध्वस्त 
क्लांत 
परास्त 
बस के इंतज़ार में 
सड़क के किनारे 
पेड़ के नीचे 
खड़ी थी, 
सोचती हुई ।  
दूर - दूर तक कोई अपना नहीं । 
किसी को परवाह नहीं । 
जीने की कोई चाह नहीं ।  
रास्ता तक पार करने की 
हिम्मत नहीं । 
पैरों में जान नहीं ।  
कैसे जीवन की 
नैया पार लगेगी ?
पता नहीं ।

आँखों में धुँधली - सी नमी थी ।  
और नब्ज़ डूब सी रही थी । 
फिर अनायास ही देखा  . . 
बहुत सारे 
सोनमोहर के फूल पीले 
मुझ पर ऊपर से झरे, 
दुपट्टे में अटक गए, 
हाथों को छूते हुए
आसपास पैरों के 
बिखर गये ।

अचरज हुआ ।
किसने मन का क्रंदन सुन लिया ?
हारे हुए सिपाही का 
अभिनंदन किया । 

और बहुत कुछ कह दिया ।

     
    

शनिवार, 9 मई 2015

हम दोस्त हैं


जाने कब से,
हम मिले नहीं ।
एक - दूसरे के बारे में,
हम कुछ जानते नहीं ।
फिर भी,
हम दोस्त हैं ।

आप भी हमारे हालात पहचानिये, 
हमारी मसरूफ़ियत को जानिये, 
देखिये, इस बात को समझिये  . . 
हम दोस्तों की सारी ख़बर रखते हैं ।

फ़ेसबुक की टाइमलाइन पर 
                    नज़र रखते हैं !
आप ख़ुद देख लीजिये !
दोस्तों की हर पोस्ट को 
              लाइक करते हैं !
हर फोटो को शेयर करते हैं,
ट्विटर पर फ़ॉलो  करते हैं !
इंस्टाग्राम पर दीदार करते हैं  . . 

पर अब, ये सब फ़िज़ूल की बातें हैं,
जो आप कहते हैं  . . 
क्या हम अपने दोस्त की 
लिखावट पहचानते हैं ?
क्या हम अपने दोस्त की 
दुखती रग चीन्हते हैं ?
इन सवालों का जवाब  . . 
                 "नहीं" है ।
इन जज़्बाती बातों के लिए वक़्त 
                            नहीं है ।
फिर भी,
हम दोस्त हैं ।

दोस्तों की लम्बी 
फ़ेहरिस्त है ।
आप चाहें तो हम 
गिनवा सकते हैं ।
मजाल है जो कभी 
उनकी बर्थडे पर 
मैसेज ना किया हो !
एनिवर्सरी पर 
विश न किया हो !
हाँ इतना तो वक़्त नहीं,
जो घर आना - जाना हो ।
कभी साथ में सैर पर निकला जाये ।
जब बिना पूछे ही 
मन की बातें 
ज़बान पर आ जायें ।
या कभी यूँ ही बरामदे में 
चुपचाप बैठा जाये,
समय की चहलकदमी को 
कौतुक से देखा जाये ।
कभी झकझोर के 
अपने अज़ीज़ को 
पूछा जाये,
यार बता !
आख़िर बात क्या है ?

हाँ ठीक है ।
वो बात ही कुछ और होती 
अगर कभी कभी 
हम गले मिलते ।
हाथ मिलाते 
तो जान पाते  . . 
दोस्त की हथेली 
ठंडी क्यों है,
पकड़ ढ़ीली क्यों है  . . 
या तसल्ली होती -
गर्मजोशी से हाथ मिला के 
दिल के बंद पोर खुल जाते !

पर ऐसा है नहीं ।
अंदरुनी दूरियाँ 
अब कोई 
नापता नहीं  . . 

ऐसा है नहीं  . . 

फिर भी,
हम दोस्त हैं ।

                                            


सोमवार, 4 मई 2015

बहुत दिनों बाद



बचपन बहुत पीछे छूट गया ।

बहुत बरस पहले कहीं ठिठका,
बस वहीँ अटक कर रह गया ।
जैसे खाते - खाते लगे ठसका  . . 
ऐसे कभी - कभी याद है आता,
और आँखें नम कर जाता ।

उस दिन कुछ ऐसा ही हुआ ।

बहुत दिनों में ननिहाल जाना हुआ ।
प्रणाम करते ही नानाजी ने कहा  . . 
अब महीना भर जाने नहीं दउंगा ।

बहुत अरसे बाद उनका ये कहना,
बालों में आती सफ़ेदी को अनदेखा कर गया ।
बचपन के किस्सों वाला पन्ना पलट गया  . . 
जिसमें था बचपन की कारस्तानियों का लेखा - जोखा  . . 
और नानाजी का बात - बात पर रोकना - टोकना ।

अब ना कोई जाने से रोकता ।
ना ही गलतियों पर टोकता ।

इसलिए जब नानाजी ने कहा  . . 
अब महीना भर जाने नहीं दउंगा  . . 

. .  तो रोना भी आया ।
और बहुत अच्छा भी लगा ।

                     

शनिवार, 21 मार्च 2015

नव संवत्सर शुभ हो !







आने वाला हर पल नया है ।
संभावनाओं से भरा है । 











समय का पन्ना नया है ।
लिखो जो चाहे लिखना है  . . . . . . 







हरेक पल अनुभव नया है ।
हर अनुभव से कुछ सीखना है ।












ये मौसम का तेवर नया है ।
या तुमने नया छंद रचा है ।      








शनिवार, 14 मार्च 2015

बात



कोई तो बात होगी 
जो तुमसे हर बात 
कहने का 
जी करता है ।

और जो बात 
कहे बिना 
कह दी जाती है ,
उसे ज़माना 
प्यार कहता है ।



  

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

छत



दफ्तर से लौटते वक़्त 
रोज़ाना,
सिग्नल वाले मोड़ पर, 
पुल के नीचे,
बस रूकती है 
एक दो मिनट ।

अक्सर 
मेरी खिड़की से 
दिखाई देता है 
पुल के नीचे का 
एक कोना 
जहाँ 
एक परिवार बसता है ।

रोज़ दिखाई देता है 
वह छोटा - सा परिवार ।
एक कम उम्र की औरत,
उसका छोटा-सा बच्चा,
एक बड़ी उम्र की औरत,
उसकी सास शायद  . . 
और संभवतः आदमी उसका ।
उनकी गृहस्थी बँधी 
कुछ पोटलियों में ।

बस जब रूकती है 
डेढ़-दो मिनट  . . 
खाना बन रहा होता है 
अक्सर ।
चार ईंटों पर बना चूल्हा 
उस पर एक तवा,
तवे पर सिकती मोटी रोटी 
देख कर भूख लग आती है ।

बड़ी औरत हमेशा 
एक ही जगह 
बैठी नज़र आती है,
हिडिम्बा जैसी,
स्थापित स्तूप की तरह ।
खाना वही बनाती है ।
कभी-कभी लेटी नज़र आती है,
पोटलियों के बीच ।

असल में वही है 
परिवार की मुखिया ।
गल्ले पर जैसे सेठ बैठा हो,
वह बैठी-बैठी, 
छोटी-छोटी प्लास्टिक की डिब्बियों से 
शायद मसाला निकालती है,
छौंक लगाती है ।

बच्चे की दूध की बोतल भी 
रखी होती है ।
ज़रुरत की चीज़ें सभी 
उन पोटलियों में मौजूद हैं ।

एक दिन अचानक देखा,
चूल्हा पड़ा था ठंडा ।
और सामान भी नहीं था ।
जी धक से रह गया ।
कहाँ गए ? क्या हुआ ?
मन उदास हो गया 
उन्हें ढूँढता हुआ ।

अगले दिन फिर देखा  . . 
वही सरंजाम था ।
परिवार वापस आ गया था !
जान कर चैन आया ।

रोज़ का सिलसिला 
फिर शुरू हो गया ।
पुल का कोना फिर बस गया ।

उनका चूल्हा जलता रहे ।
चूल्हे पर कुछ ना कुछ पकता रहे ।
बच्चे की दूध की बोतल भरी रहे ।
बस इसी तरह रोज़ रुका करे ।
उनसे मेरा रिश्ता बना रहे ।
और भगवान करे  . . 
एक दिन
उनके भी सर पर हो 
एक छत ।



तुम हो



जब छत से आँगन में धूप उतरती है,
मुझे लगता है कि तुम हो ।
तुम हो ।
सुनहरी धूप की गुनगुनी छुअन तुम हो ।
मेरी हर बात में तुम हो ।
हर इक अहसास में तुम हो ।

जब घर की क्यारी में फूल खिलते हैं,
मुझे लगता है कि तुम हो ।
तुम हो ।
इन फूलों की भीनी खुशबू तुम हो ।         
मेरी हर बात में तुम हो ।
हर इक अहसास में तुम हो ।

जब खेतों में पुरवाई चलती है,
मुझे लगता है कि तुम हो ।
तुम हो ।
चंचल हवाओं की अल्हड़ शोखी तुम हो ।
मेरी हर बात में तुम हो ।
हर इक अहसास में तुम हो ।

जब बरामदे में बच्चे शोर मचाते हैं,
मुझे लगता है कि तुम हो ।
तुम हो ।
शरारती बच्चों की मासूमियत तुम हो ।
मेरी हर बात में तुम हो ।
हर इक अहसास में तुम हो ।



शनिवार, 24 जनवरी 2015

बस नहीं है क्या ?



मेरे मन  . . 
मेरी बात सुनो ना !
इस तरह उदास रहो ना !

माना कि बहुत कुछ ठीक नहीं हुआ !
जो चाहा था वो ना हुआ ! 
पासा ग़लत फेंका  . . 
या दांव नहीं लगा ।
आखिर ज़िंदगी है जुआ ।
ख़ैर ! जो हुआ सो हुआ !

पर ये भी तो देखो  . .
पौधे पर आज एक नया फूल खिला !
कुछ नमकीन कुछ ठंडी - सी है सुबह की हवा ।
स्कूल में हो रही है प्रार्थना सभा ।
बच्चों ने पार्क में जमाया आज खेल नया ।
समंदर का पानी है झिलमिला रहा !
जैसे लहरों पर हो चाँदी का वर्क बिछा !
कोई बाँसुरी देर से बजा रहा ।
जैसे जीवन के समस्त कारोबार का 
सार कब से उसे है पता ।

ट्रेन का सही समय पर आना ।
बस में बैठने को सीट मिल जाना ।
जेब में ज़रुरत भर के पैसे होना ।
तमाम हादसों के बीच हाथ - पाँव सलामत होना ।
बहुत नहीं है क्या ?

बहुत नहीं है क्या ?
खुशहाल रहने के लिए ।    
फ़िलहाल जीने के लिए ।  
   
एक कल असमंजस में बीता,
आने वाले कल का ठिकाना नहीं ।
पर ये खूबसूरत अहसास इस पल का,
किसी भी हाल में गँवाना नहीं !    
      

  

रविवार, 11 जनवरी 2015

सफ़ेद रिबन के फूल


और दिनों के मुक़ाबले, 
बस खाली थी 
और सरपट जा रही थी ।
दफ्तर वक़्त पर पहुँचने की 
उम्मीद थी ।
बैठने को मिल गया ,
तो ध्यान दूसरी तरफ गया  . . 
अख़बार की सुर्खियाँ टटोलने लगा ।
हर सिम्त बात वही ,
पेशावर के स्कूल की ।
एक स्टॉप पर बस जो रुकी, 
हँसती - खिलखिलाती, 
बल्कि चहचहाती ,
स्कूल की बच्चियाँ चढ़ गयीं ।
इतनी सारी थीं 
कि बस भर गयी !
स्कूल यूनिफार्म पहने, 
बस्ते लिए ,
और उनकी दोहरी चोटियों पे 
बने हुए थे,
सफ़ेद रिबन के फूल ।

सारी बस जैसे बन गयी थी बगिया, 
जिसमें खिले थे अनगिनत
सफ़ेद रिबन के फूल ।

बस ब्रेक लगाती, 
तो लड़कियाँ एक दूसरे पर गिर पड़तीं ।
उनमें से एक कहती  . . 
फिसलपट्टी है !  
और फिस्स से हँस देती ।
एक हँसती  . . उसके हँसते ही 
हँसी की लहर बन जाती ।
दुनिया से बेख़बर 
उनकी खुसर - फुसर ,
आँखों में चमक ,
बतरस की चहल - पहल ,
सारी की सारी बस में समा गयी । 
या बस उनमें समा गयी ।

बस कंडक्टर ने आवाज़ लगायी, 
चारों तरफ नज़र घुमाई, 
अब टिकट कौन लेगा भई !

जवाब में फिर सब हँस पड़ीं ,
जैसे बहे पहाड़ी नदी ।

इस लहर - हिलोर में मन में आया कहीं 
भगवान ना  करे  . . 
इनकी हँसी पर, 
इन सफ़ेद फूलों पर 
हमला करे कोई  . . 
नहीं ! कभी भी नहीं !
ऐसा ख़याल भी मन में लाना नहीं !
इन बच्चियों की हँसी 
दिन पर दिन परवान चढ़े । 
यूँ ही चलते रहें 
हँसी के सिलसिले !
हर तरफ़ खिलते रहें !
सलामत रहें !
सफ़ेद रिबन के फूल ।