शनिवार, 20 जून 2015

युद्ध

अपना महाभारत 
स्वयं ही 
लड़ना होता है ।

ख़ुद ही अर्जुन
ख़ुद ही श्रीकृष्ण 
बनना पड़ता है ।


शुक्रवार, 19 जून 2015

प्रसाद दो ना


घर का रास्ता खो गया । 
मुझे याद नहीं 
अपना ही पता । 
काश कोई अपना 
राह चलते मिल जाता,
घर तक पहुँचा आता ।

हे ईश्वर ! परमपिता !
तुम ही ने जब 
इस भूल भुलैया का 
खेल है रचा ,
तो तुम ही क्यों नहीं 
अब बता देते सही पता ?
तुम्हें तो सब कुछ है पता ,
तुम्हारा ही तो है एकमेव आसरा ।

बताओ तो भला 
ऐसा क्यों हुआ ?

जिन्हें तुमने मार्ग बुझाने भेजा 
वो भी क्यों बुझाते हैं पहेली ?
क्यों नहीं करते बात सीधी - सच्ची ?
सहजता की क्यों कोई अब मान्यता नहीं रही ??
क्यों नहीं बोलता कोई 
सहज और सरल प्रेम की बोली ?

क्या मान्यताओं और विषम परिस्थितियों में ही 
उलझा कर, 
लेते रहोगे तुम निरंतर परीक्षा ?
क्या सरल आस्था और समर्पण की 
मिटटी में, 
ना खिल सकेगा 
भक्ति का पौधा ?

यदि हाँ तो अभी ही उत्तर दो ना !
मन की अपार व्यथा दूर करो ना !
मेरी ऊँगली पकड़ कर मुझे घर तक पहुँचा दो ना !