रविवार, 10 मई 2015

अभिनंदन

पस्त 
ध्वस्त 
क्लांत 
परास्त 
बस के इंतज़ार में 
सड़क के किनारे 
पेड़ के नीचे 
खड़ी थी, 
सोचती हुई ।  
दूर - दूर तक कोई अपना नहीं । 
किसी को परवाह नहीं । 
जीने की कोई चाह नहीं ।  
रास्ता तक पार करने की 
हिम्मत नहीं । 
पैरों में जान नहीं ।  
कैसे जीवन की 
नैया पार लगेगी ?
पता नहीं ।

आँखों में धुँधली - सी नमी थी ।  
और नब्ज़ डूब सी रही थी । 
फिर अनायास ही देखा  . . 
बहुत सारे 
सोनमोहर के फूल पीले 
मुझ पर ऊपर से झरे, 
दुपट्टे में अटक गए, 
हाथों को छूते हुए
आसपास पैरों के 
बिखर गये ।

अचरज हुआ ।
किसने मन का क्रंदन सुन लिया ?
हारे हुए सिपाही का 
अभिनंदन किया । 

और बहुत कुछ कह दिया ।