रविवार, 25 दिसंबर 2016

ज़िद कर !

आज तेरा दिन है । 
बड़ा दिन है । 

जो औरों का 
दुःख-दर्द अपना कर
सूली पर चढ़ गया,
उसने तुझे भेजा है 
आज के दिन।
तू दुनिया को 
बड़े दिन का 
तोहफ़ा है ।
अपनी पीड़ा 
आत्मसात कर 
दुनिया को हँसाना 
तेरी बेबाक़ अदा है ।
लोगों को हँसा, 
अपना ग़म भुला 
और ख़ुशी के अफ़साने लिख  . . 
जिस तरह दुःख को हँसी में उड़ाना 
तेरा अंदाज़े - बयां है ।

लिख । 
रोज़ अपने मन की बात लिख ।  
कागज़ पे और दिल पे  . . 
और अपने - आप से 
ज़िद कर ।      

ज़िद कर 
दुनिया को हँसते - खेलते 
बेहतर बनाने की ।
हर हाल में मुस्कुराने की  
ज़िद कर ।

ज़िद कर अपनों से 
छोटी - छोटी चीज़ों की !
मचल जा !
ज़िद कर और मांग 
बुढ़िया के बाल,
कंचे, लेमन चूस,
सेंट वाला रबर,
अटरम शटरम,
टपरी की चाय,
सींग दाने की पुड़िया,
भाड़ के भुने चने,
बुलाने का कोई 
पाजी सा नाम,
रहीम के दोहे,
मुल्ला नसरुद्दीन के किस्से  . . 
अपनों से मांग । 
बल्कि सपने,
चाँद - सितारे भी माँग  . . 
अपने खुदा से मांग ।              

जब जी चाहे,
अपनों से 
कस के लिपट जा
और पीठ पर 
एक धौल मांग,
कान का उमेंठना मांग,
डाँट - फटकार मांग 
और ज़िद कर !
ज़िद कर 
गाढ़े अपनेपन की 
मिसरी में पगे, 
खरे - खरे 
दो रूखे बोल मांग !
उनके मन के 
अनचीन्हे कोने में 
थोड़ी - सी जगह मांग !
ज़िद कर !
हक़ जता और 
अपनों से 
ज़िद कर !

आज तेरा दिन है ।
बड़ा दिन है ।
बड़े - बड़े काम कर, 
पर छोटा बन कर 
लड़ - झगड़  . . 
कोई मासूम - सी 
ज़िद कर !
    

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

कर्म ही कविता है

बड़े बड़े व्याख्यान, 
उपदेश महान, 
लेख, आलेख, 
बुद्धिजीवियों के सुझाए 
सारगर्भित समाधान, 
विश्लेषण, विवेचना, 
समालोचना, 
काव्य के सजावटी फूल, 
सब रह जाते हैं 
धरे के धरे ।


सब रह जाते हैं 
धरे के धरे,
अगर समय पर 
ये सारा दर्शन 
काम न आए ।
जो जैसा घाट रहा है, 
वैसा ही रह जाए ।

लेकिन यदि 
नेक नीयत से किया 
एक छोटा - सा भी काम, 
जीवन में एक इंच मुस्कान 
के वास्ते 
जगह बना दे, 
सोई हुई आस जगा दे,
दुःख में सुख ढूंढ़ना सिखा दे,
जो बस में नहीं 
उसे स्वीकार करना, 
जो स्वीकार नहीं 
उसे बदलने का हौसला दे,  
टूट कर जीने का फलसफ़ा दे  . . 

तब ही, 
शब्द की सार्थकता है । 
तब ही, 
शब्द जीवन से जुड़ता है ।  

यानी,
कर्म ही गीता है । 
कर्म ही कविता है ।    


रविवार, 18 दिसंबर 2016

तुम्हें याद रहेगा क्या ?


क्या तुम्हें पता है ?
मैंने हमेशा 
दिल से चाहा है,
कि तुम 
बड़े ना बनो ।  

बड़े ना बनो ।
अच्छे बनो ।

मुझे क्या तुम 
आश्वस्त कर पाओगे ?

जो भी 
मन में हो,
सही ग़लत हो, 
जैसा भी हो, 
जब भी कोई 
बात मन में आए ।
जस की तस 
जैसी मन में आये 
कह पाओगे ?
कहो मेरे लिए 
क्या इतना 
कर पाओगे ?
जीवन भर क्या 
ये याद रख पाओगे ?

क्या मित्रता की 
यह रवायत 
जीते-जी 
निभा पाओगे ?

क्या याद रख पाओगे 
हमेशा ?
किसी के पास तमाम 
सुख-दुःख का हिसाब, 
कल्पना का ज्वार, 
हर अटपटा सवाल, 
बेबुनियाद ख़याल, 
जब चाहे जी में 
उठता बवाल, 
और जिसके लिए     
तुम्हारे जीवन में 
जगह तक नहीं, 
वो नाजायज़ जज़्बात  . .  
सब तुम्हें दर्ज कराने हैं । 
छोड़ कर जाने हैं 
किसी के पास।

बिना किसी वजह के 
बिना किसी सवाल - जवाब 
जमा करते जाना है ,
क्योंकि ये अख़्तियार 
तुमने ख़ुद मुझे 
दिया है ।     

अहद किया है ,
कोई नाता हो ना हो, 
मन की हर बात तुम्हें 
देनी है मुझे, 
ताकि एक दिन 
इन सारी बातों को, 
मथ कर पिरो कर,  
कोई एक बात 
लौटा सकूँ तुम्हें
ताबीज़ की तरह ।

मेरे लिए इतना 
कर सकोगे क्या ?
तुम्हें याद रहेगा क्या ?

बताना ।    


सोमवार, 12 दिसंबर 2016

मेरे हिस्से का आकाश





                               मेरे हिस्से में 
                               जितना भी 
                               आकाश है,
                               बहुत है.. 
                               पंख फैला कर 
                               उड़ान भरने के लिए ।  

                               काफ़ी है, 
                               बाँहें फैला कर 
                               समूचे आकाश को 
                               गले लगाने के लिए ।


                               सबके लिए, 
                               दिल में जगह
                               बनाने के लिए ।
 


रविवार, 27 नवंबर 2016

दीये की लौ



एक मिट्टी के दीये की 
अडिग अटूट लौ  . . 

मानो हाथ जोड़े
कर रही हो 
वंदना आराध्य की । 

मानो कवि की कल्पना
बन गई हो प्रार्थना ।  

मानो एकटक अपलक 
झाँक रही हो 
प्रियतम के मन में । 

मानो सर उठाये 
निर्भय निर्द्वन्द, 
अकेली खड़ी हो
सत्य की प्राचीर पर, 
दृढ़ निश्चय का बाण ताने, 
धनुष उठाए, 
सामना करने 
भवितव्य के आक्रमण का ।

बुधवार, 23 नवंबर 2016

मैं कैसे छोड़ दूँ कोशिश करना ?





सूरज की आड़ में
बार बार अँधेरा
उड़ाता है
मिट्टी के मामूली दीये का
मज़ाक ।
बार बार
याद दिलाता है उसे
उसकी औक़ात ।
तो क्या
मिट्टी का मामूली दीया
छोड़ देता है जलना ?
तो मैं कैसे छोड़ दूँ
कोशिश करना ?

दीये को पता है,
सूरज से उसका
क्या है रिश्ता ।
सूरज को पता है,
दीये बिना उसका
कोई नहीं अपना ।
सूरज का भरोसा है,
मिटटी का मामूली दीया ।
फिर मैं कैसे छोड़ दूँ
कोशिश करना ?

दीये ने कभी नहीं चाहा
सूरज की जगह लेना ।
बस अपना कर्तव्य जाना
चुपचाप जलना ।
अधीर ना होना ।
उजाले की आस बनाए रखना ।
अँधेरे में अलख जगाए रखना ।

एक मामूली मिट्टी का दीया
जब अकेला अकंपित डटा रहा,
तब मैं कैसे छोड़ दूँ
कोशिश करना ?




रविवार, 2 अक्तूबर 2016

लड़ाई अभी बाकी है




जंग जीत ली है । 

सीमा पर तैनात सिपाही ने 
जंग जीत ली है। 

हर हिंदुस्तानी को 
सीना तान कर चलने की 
वजह दी है ।

सीमा की लड़ाई 
जवानों ने जीत ली है।  
पर सीमा के भीतर की लड़ाई ..
वही जो बापू ने थी सिखाई। 
याद है ना ?

हाँ वही .. सोच की लड़ाई। 
सोच की लड़ाई ..
खुद को जीतने की लड़ाई। 
मेरे हिस्से की लड़ाई अभी बाकी है। 

मेरे हिस्से की लड़ाई अभी बाकी है। 
मेरे हिस्से का कर्म योग अभी बाकी है। 

इतने दिन अपना आँगन साफ़ रखा। 
अपने मौहल्ले की सफ़ाई अभी बाकी है। 

इतने दिन अपने रूप का जतन किया,
मन पर जमी धूल पोंछना अभी बाकी है।

इतने दिन अपनी आजीविका का साधन जुटाया ,
साधनहीन की गरीबी दूर करना अभी बाकी है। 

इतने दिन ग़लत बातों का सिर्फ़ शिकवा किया ,
ग़लत का निर्भय हो सामना करना अभी बाकी है। 

इतने दिन बुरी आदतों और रूढ़ियों का रोना रोया ,
दीमक सी चिपकी आदतों को सुधारना अभी बाकी है। 

बाकी है। 
मेरे हिस्से की लड़ाई अभी बाकी है। 

सीमा पर तैनात सिपाही ने 
जंग जीत ली है। 

पर मेरे हिस्से की लड़ाई अभी बाकी है।